हम रहें या ना रहें, भारत ये रहना चाहिये।

कभी-कभी सच में मनुष्य पर दु:खों का पहाड़ टूट पड़ता है। भोपाल में अरेरा कॉलोनी के पॉश इलाके में किराये पर एक कमरा लेकर रहने वाली कल्पना विश्वकर्मा की कहानी भी कुछ ऐसा ही दर्द बयां करती है। एक पैर में गैंगरीन की वजह से लगभग अपाहिज हो चुकी गर्भवती कल्पना के लिए कोरोना काल अनगिनत मुसीबतें लेकर आया। एक तरफ उसके ससुर द्वारका प्रसाद विश्वकर्मा कोरोना संक्रमित होने के बाद जिंदगी व मौत की जंग लड़ रहे थे, तो दूसरी तरफ ऑटोचालक पति सोनू का रोजगार लाकडाऊन ने छीन लिया था।पेट में नन्हीं-सी जान लिए कल्पना के लिए ससुर के इलाज का खर्च जुटाना मुश्किल था, वहीं वो खुद भी दाने-दाने के लिए तरस रही थी। जब उसकी ये व्यथा भोपाल में सेवा भारती की महानगर महिला संयोजिका आभा दीदी तक पहुंचीं तो मानों सेवा भारती के रूप में साक्षात ईश्वर के द्वार उसके लिए खुल गये। सेवा के लिए संकल्पित सेवा भारती के कार्यकर्ताओं ने कल्पना के परिवार की सारी जिम्मेदारी अपने सर उठा ली। पहले उनके ससुर जी का इलाज करवाने के प्रयास किए किन्तु जब वे नहीं रहे तो उनके अंतिम संस्कार से लेकर तेरहवीं तक के सारे कर्तव्य निभाए। इतना ही नहीं, लॉकडाउन खत्म होने तक इस परिवार को राशन व गर्भवती कल्पना को समुचित आहार मिले इसकी व्यवस्था भी की गयी